Farming Crisis

Farming Crisis

कृषि संकट

किसानों की स्थिति आज एक गंभीर मोड़ पर है। हमें सतर्क रहने की आवश्यकता है क्योंकि अब हमारे जीवन के हर पहलू पर कुछ बड़े कॉर्पोरेट समूहों और गिनी-चुनी परिवारों का नियंत्रण बढ़ता जा रहा है। विशेष रूप से कॉर्पोरेट खेती का उभार कृषि क्षेत्र के लिए एक बड़ा ख़तरा बन रहा है। इस ख़तरे की गंभीरता को समझना बेहद ज़रूरी है क्योंकि यह बदलाव बहुत तेज़ी से हो रहा है।

कृषि: सभ्यता की नींव

किसान ही इस दुनिया की रीढ़ हैं। मानव सभ्यता का विकास कृषि के इर्द-गिर्द हुआ है। जब इंसानों ने स्थायी रूप से बसना शुरू किया, तो उन्होंने पानी के  स्रोतों, विशेषकर नदियों के किनारे अपने गाँव बसाए। सिंधु घाटी सभ्यता इसका एक प्रमुख उदाहरण है, जो कृषि पर आधारित थी और इसी के कारण फली-फूली।

प्रारंभिक दौर से ही खेती एक श्रम-साध्य कार्य रहा है। एक किसान के परिवार का हर सदस्य खेतों में मेहनत करता था ताकि अधिक उत्पादन हो सके। खेती हमेशा से शारीरिक परिश्रम पर आधारित रही है और आज भी जलवायु पर इसकी निर्भरता बनी हुई है, चाहे आधुनिक तकनीक और उपकरणों का कितना भी प्रयोग क्यों न हो। मौसम की मार का असर फ़सलों पर पड़ता है, जिससे किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ता है।

पुराने समय में फ़सल को ही धन माना जाता था और किसान अपनी उपज के बदले में अन्य वस्तुएँ प्राप्त करते थे। खेती हमेशा धैर्य और साहस का काम रही है, क्योंकि कभी-कभी फसल पकने के समय ही ख़राब मौसम फ़सल बर्बाद कर देता है। बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं किसानों के लिए आम समस्या रही हैं।

खेती का व्यवसायीकरण और समस्याएं

समय के साथ खेती के तरीक़े बदलते गए। नदी से सिंचाई के स्थान पर ट्यूबवेल का प्रयोग शुरू हुआ, हाथ से जुताई के स्थान पर आधुनिक ट्रैक्टर आए। मुद्रा अर्थव्यवस्था के आगमन के बाद खेती का व्यावसायीकरण हुआ। किसानों पर अधिक उत्पादन का दबाव बढ़ने लगा, जिससे रासायनिक उर्वरकों और संकर बीजों का उपयोग बढ़ा।

इस दौर में कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई, जहाँ बीज की गुणवत्ता पर शोध किया गया और फ़सलों को बचाने के लिए रसायनों का उत्पादन हुआ। यह वह दौर था जब देश को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने का लक्ष्य रखा गया था और यह उद्देश्य काफ़ी हद तक सफ़ल भी हुआ।

हालाँकि, इस प्रक्रिया का दुष्परिणाम यह हुआ कि भूमि की उर्वरता घटने लगी, कई प्राकृतिक जड़ी-बूटियाँ समाप्त हो गईं और जलस्तर तेज़ी से गिरने लगा। इतना ही नहीं, रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण उपज भी ज़हरीली होने लगी, जिससे कई बीमारियों का ख़तरा बढ़ गया।

दुखद बात यह है कि इस मेहनत के बावजूद किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है। उनकी आर्थिक स्थिति बदतर होती जा रही है और वे क़र्ज़ के जाल में फँसते जा रहे हैं।

पूंजीवाद और कॉर्पोरेट खेती का ख़तरा 

आज जब देश खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हो चुका है, तब सरकार का कृषि पर ध्यान कम हो गया है। पूंजीवाद ने सेवाओं और विनिर्माण जैसे क्षेत्रों में लाभ कमाना शुरू कर दिया है, जिससे देश की आमदनी के लिए कृषि की भूमिका सीमित हो गई है।

लेकिन अब बड़े पूंजीपति कृषि क्षेत्र को अपने नियंत्रण में लेने के लिए प्रयासरत हैं। वे समझ चुके हैं कि भोजन ही वह अंतिम वस्तु है जिसे वे बड़े पैमाने पर बेच सकते हैं, क्योंकि इसे बिना माँग के बेचना संभव है।अब ये कॉर्पोरेट कंपनियाँ सरकार पर दबाव बना रही हैं कि वे कॉर्पोरेट खेती को बढ़ावा दें। इसके लिए किसनों से ज़मीन ख़रीदी जाए। पहले जो संस्थाएं किसानों से फ़सल ख़रीदती थीं, अब सरकार उन्हें निजी कंपनियों के हवाले करना चाहती है।

सिर्फ पूंजीपतियों ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय संगठन भी सरकार पर बिजली की सब्सिडी और अन्य राहतों को कम करने का दबाव बना रहे हैं। इस जटिल समस्या का समाधान इतना आसान नहीं है जितना यह प्रतीत होता है।

जल वायुपरिवर्तन और किसानों की चुनौतियाँ

यदि हम पूंजीपतियों और अंतरराष्ट्रीय दबाव को संभाल भी लें, तो जलवायु परिवर्तन एक बड़ी चुनौती के रूप में उभर रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम में अप्रत्याशित बदलाव आ रहे हैं, जिससे फसलें तेज़ी से नष्ट हो रही हैं। यह समस्या पहले की तुलना में कहीं अधिक गंभीर हो चुकी है।

पूंजीपति अब बीज, डेयरी उत्पाद, बाज़ार , ज़मीन—हर चीज़ पर नियंत्रण चाहते हैं। राज्य पर तो उनका नियंत्रण साफ़ नज़र आता है, यदि वे कृषि पर कब्ज़ा कर लें, तो वे न केवल राज्य पर बल्कि आम जनता के भोजन पर भी नियंत्रण स्थापित कर लेंगे। जिस से वो आम लोगों पर नियंत्रण पा लेंगे।

किसानों की संस्कृति और संघर्ष

सरकार, पूंजीपति और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ किसानों की संस्कृति और परंपराओं को नहीं समझते। वे यह जानने में असमर्थ हैं कि किसानों के लिए उनकी भूमि केवल संपत्ति नहीं, बल्कि माँ के समान होती है।

कृषि किसानों के जीवन का आधार है। उनकी भाषा, रीति-रिवाज, त्योहार, पहनावा और खानपान सभी कुछ इसी ज़मीन से जुड़ा हुआ है। भले ही हम कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और तकनीकी प्रगति के युग में पहुँच चुके हों, लेकिन किसानों का अपने खेतों से जुड़ाव कभी कम नहीं होगा।

लेकिन समस्या यह है कि किसान अपनी उपज का उचित मूल्य पाने में असमर्थ हैं। वहीं, उपभोक्तावाद और विज्ञापन संस्कृति के प्रभाव में आकर उनका ख़र्च भी बढ़ गया है, खेती की लागत भी आसमान छू चुकी है, जिस से वे लगातार क़र्ज़ के दलदल में फँसते जा रहे हैं।

किसानों का संघर्ष और उम्मीद

आज किसान केवल अपनी आजीविका के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए लड़ रहे हैं। भले ही किसानों को शिक्षित वर्ग की तुलना में कम पढ़ा-लिखा माना जाता हो, लेकिन वे असल में समाज को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दूसरी ओर, तथाकथित शिक्षित वर्ग अपने आरामदायक जीवन में मस्त है। ये लोग वही शिक्षा पढ़ कर शिक्षित हुए हैं जो पूंजीवाद ने उनके लिए तैयार की है, जो उन्हें इस संकट की वास्तविकता से अनजान रखती है।

लेकिन इतिहास गवाह है कि किसान हमेशा संघर्षशील रहे हैं। चाहे विदेशी ताक़तों के ख़िलाफ़ युद्ध हो या अपनी ज़मीन को बचाने की लड़ाई, किसानों ने हमेशा जीत हासिल की है — और इस दौर में भी वे विजयी होंगे।

किसानों का यह संघर्ष केवल उनकी आजीविका का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह हर नागरिक के अस्तित्व से जुड़ा है। किसानों के बिना भोजन का उत्पादन संभव नहीं है, और यदि पूंजीपति इस क्षेत्र पर हावी हो गए, तो समाज का हर व्यक्ति इसकी भारी क़ीमत चुकाएगा।इसलिए, हमें किसानों के इस संघर्ष में उनके साथ खड़ा होना चाहिए — क्योंकि उनका संघर्ष केवल उनका नहीं, बल्कि हम सबका संघर्ष है।